सरकार ने नया आदेश जारी कर ₹3000 सालाना टोल टैक्स लेना अनिवार्य कर दिया है। कहने को तो यह सड़क विकास के लिए है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में हमें उन सड़कों पर चलने का हक मिल पा रहा है, जिनके लिए हम पहले ही टैक्स भर चुके हैं?
हर गाड़ी मालिक से ₹3000 का अतिरिक्त बोझ डाल दिया गया है — वो भी तब जब पहले से ही पेट्रोल पर टैक्स, रोड टैक्स, और रजिस्ट्रेशन चार्ज अलग से दिए जा रहे हैं।
लोगों का सवाल है —
क्या ये 'टोल टैक्स' वसूली का नया तरीका है?
क्या आम आदमी को ₹3000 के बदले अस्पताल जितनी फिसलन भरी सड़कें और रोज़ का जाम मिलना ही 'सुविधा' कहलाती है?
कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि टोल नाके की लाइन पार करने में ही 30 मिनट लग जाते हैं, और उसके बाद भी कोई ठोस जवाब नहीं मिलता कि यह पैसा आखिर जा कहां रहा है?
सरकार भले इसे विकास कहे, लेकिन आम आदमी इसे 'बिना सुविधा के टैक्स वसूली' मान रहा है।
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🧠 सोचने वाली बात:
अगर ₹3000 में ना तो समय बच रहा है, ना ईंधन, ना सड़क की क्वालिटी —
तो फिर यह टैक्स नहीं, 'ठगाई' है!
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